Monday, December 22, 2008

कभी यूं ही


कभी यूं ही मैं ख़ुद में जो तन्हा हुआ
न कभी इतना पहले था ख़ुद से खफा हुआ !!
मैं उलझता चला गया अपनी ही सोच में
मेरे मन का कोना जैसे बियबां हुआ !!
न जाने क्यों होने लगी थी जिंदगी बंजर
उखडा उखडा सा था आंखों में हर मंजर
मैं आ गया था ख़ुद से इतनी दूर
कि मेरा साया भी मुझे देखकर हैरां हुआ !!
वो जो पलकों के तले लगा था कोई ख्वाब बोने
उस गम को, आंखों का समन्दर लगा था डुबोने
मैं देखता रह चुपचाप सारा तमाशा
और मेरा दर्द, मेरे लिए बहुत परेशां हुआ !!
न जाने क्या क्या रिसता गया मन से
न जाने क्या क्या जुड़ता गया खालीपन से
एक एक लम्हा जुदा होता गया जैसे मुझसे से
मैं जिंदगी के लिए बेहिसाब प्यासा हुआ !!

5 comments:

vijay kumar sappatti said...

nazm mein bahut dard hai ..

मैं देखता रह चुपचाप सारा तमाशा
और मेरा दर्द, मेरे लिए बहुत परेशां हुआ !!

ye lines mujhe bahut acchi lagi .

bahut bhaavpoorn rachna..
badhai

vijay
poemsofvijay.blogspot.com

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

saari hi panktiyaan majboot hain.. kisi ek kaa jikra kyaa karun....!!

Madhuresh said...

न जाने क्या रिसता रहा मन में ..
और जिन्दगी के लिए बेहिसाब प्यासा हुआ ..

सुन्दर!

Pratibha Verma said...

बहुत सुन्दर ...
पधारें "चाँद से करती हूँ बातें "

Prakash Jain said...

beautiful..,bahut khoob