Saturday, January 24, 2009

बोझ


हाँ..टूटा था सपना
मैं बहुत रोया था
पर समझ नही पाया
जिसको कभी पाया ही नही
उसको इस तरह से कैसे मैंने खोया था ॥
पढ़ नही पा रहा था फिर भी
मैं अपने मन की चिठ्ठी को
खोदता जा रहा था बस
अपने मन की मिटटी को
और पाया कि वहां उम्मीद की जगह
सिर्फ़ आंसूं बोया था ॥
लम्हे चले जा रहे थे जाने क्यों यूं ही बीतकर
हारता जा रहा था मैं ख़ुद को,सोच से जीतकर
समेटता जा रहा था जिंदगी में सन्नाटे
शायद इस खौफ से कि मेरा हर ख्वाब सोया था ॥
ढूढने में लगा हुआ था जिसको एक रोज से
वो दबता जा रहा था कहीं,मेरे ही बोझ से
पर मैं ही निकला ग़लत,जब ये जाना फकत
मेरे मन ने ही मेरी जिंदगी का बोझ ढोया था ॥
चढ़ती जा रही थी मेरे चेहरे पर
मायूसियों की परत
पड़ती जा रही थी मुझे
बस ये सोचने की लत
क्यों कोई आइना मेरा अपना नही
या कि बरसों से मैंने ही अपना अक्स नही धोया था ॥

Friday, January 23, 2009

काश..


मेरी इस बेरुखी में शामिल गर न तू होता
मुझे इस दर्द में भी शायद थोड़ा सुकूं होता !!
न अनजान होता तू इतना मुझसे
गर तू ख़ुद से भी कभी रु-ब-रु होता!!
न होती तेरी मेरी जिंदगी किश्तों में
न घुलती तन्हाई इस कदर रिश्तों में
तो प्यार तेरा मेरा न यूं बे-आबरू होता!!
रास आ जाती मुझको या तो तेरी बेवफाई
या कि मेरी अपनी होती,मेरी तन्हाई
न उसमें तेरे लिए एक भी आंसूं होता!!
नज़र आती है आईने में तेरी सूरत
क्यों मेरे वजूद को पड़ी तेरी ही जरुरत
काश ये अक्स मेरा,तुझ सा न हु-ब-हु होता !!
ये मेरा गम है,जो तेरे लिए बेनाम सा है
ये दर्द भले ही तेरे लिए आम सा है
काश ये मुझ पर खत्म और तुझ से शुरू होता !!

Wednesday, January 14, 2009

पिंजर..


मैं होकर भी ख़ुद में अलग ,सब में आम थी
एक नाम होकर भी जैसे बेनाम थी
मैं रहना चाहती थी हर पहचान से परे
कुछ लम्हे जीना चाहती थी शब्द भरे
ऐसा नही था कि मैं बस तन्हा से लम्हे चुनती थी
कभी खामोशी बोलती थी तो उसकी भी सुनती थी
मेरे पास आकर जब भी रोती थी मेरी तन्हाई
उन आसुओं से धुल जाती थी मन की काई
मोती समझकर चुगती थी जिसको जिंदगी फ़कीर सी
रिसती थी जैसे रूह पानी पानी ,पीर सी
पर देखा कठोर होते जा रहे थे मन के दरख्त
और मैं होती जा रही थी ख़ुद के साथ सख्त
धुंधले से पड़ने लगे थे वक्त के मंजर
उतरता जा रहा था जेहन में दर्द का खंजर
भूख से बिलखता जा रहा था मेरा जेहन
और मैं बोने लगी थी प्रीत के बीज से बंजर
मैं चलती जा रही थी मन की मिटटी को आंसुओं से सींच
और जिंदगी की हर आह को,अन्दर ही भींच
सोच तड़प रही थी, बुन रही थी कहर
और मन बनता चला गया ख़ुद ब ख़ुद सवालों का पिंजर

Monday, January 12, 2009

मेरी कलम!!


चलती है मन की कलम तो सुकूं सा है
ये कल्पनाओं का घरोंदा मेरे लिए जुनूं सा है!!
जो सोच अक्सर इर्द-गिर्द रहती है मेरे
उसको शब्दों में पिरोना,ख़ुद से गुफ्तगू सा है!!
ये 'आह' है,नही इसकी खातिर 'वाह' की गुजारिश
ये एहसास जिंदगी की जुस्तजू सा है!!
यूं लगता है, हो रही हूँ मैं धीरे धीरे ख़ुद से मुखातिब
मेरा वजूद कहीं,मुझसे रु-ब-रु सा है!!
इसकी महक है गर हर दिल तक
तो ये मेरी खुशबू सा है!!
एक कसक से उठी नज़्म भर नही
ये लम्हा दिल में जलती आरजू सा है...!!

बस!!


मैंने जितना चाहा दूर ,ख़ुद से होना
मैं उतना ही ख़ुद के करीब आता गया ........
मैं चल चुका था मीलों, खुशी की तलाश में
और मेरा हर गम मुझ पर मुस्कुराता गया ..........
मैं देखता रहा आसमां के खालीपन को
जो मेरे मन का सूनापन बढाता गया ...........
मैं ढूंढता रह गया अपनी मिट्टी के रंग
वो हर रंग को उस सूनेपन में डुबाता गया ...........
मैं भी डूबता गया हर एहसास में
अपनी सोच के साथ, ख़ुद गहराता गया
कुछ बूँद मिल गई मेरे प्यासे दर्द को
न पता था मैं ख़ुद को क्यों इतना रुलाता गया
मैं समझने लगा था ख़ुद को औरों से बड़ा
मुझे न जाने क्यों अकेलापन भाता गया
हाँ!बहुत मुश्किल था ख़ुद में रहकर जीना
मैं फिर भी ख़ुद से निभाता गया
मैं देखता रहा दूसरो की दौलत
और अपना वजूद मिटाता गया .........
मैं बदलता गया ख़ुद को,ख़ुद के लिए
और वक्त के आईने को चाहता गया ............
मैं जिस भूल में जिंदगी को बहुत पीछे छोड़ आया था
मैं उस भूल को ही फिर दोहराता गया...........
मैं जोड़ता रहा बस ख़ुद को ख़ुद से
और ख़ुद में से ख़ुद को ही घटाता गया ...........

फिर भी...


तेरी गीली सी पलकों के तले
फैली थी काली गहरी स्याह
सचमुच रात बहुत लम्बी थी
अंधेरे में लिपटी थी हर राह !!
तन्हाई की चादर में ख़ुद को छिपाए
मन जल रहा था किसी अफ़सोस में
पल रहे थे कितने ही आंसूं
जैसे उस गम की कोख में
कसमसा रही थी जिंदगी
खामोश सी थी हर आह !!
मांगता रह गया रस्ता उस बीती रात से
जोड़ता रहा ख़ुद को हर अधूरी बात से
न पहुँच पाया तुझ तक उस मुलाकात से
तकलीफ में बहुत था मगर ख़ुद की निजात से
हो न सकी फिर भी तेरे दर्द से कोई सुलह.....!!

Sunday, January 11, 2009

एक सवाल ....


क्या हो गया है क्यों इस तरह से
वो उजालों में जल रहे है ?
क्यों ढूँढते फिर रहे हैं अंधेरे?
क्यों झूठे ख़्वाबों में पल रहे है?
भूल गए है जिंदगी से किए वादे
भटक गए है कहाँ इरादे
क्यों अपने दिल की आवाज को
नफरत के जुनू में मसल रहे है ?
क्यों,कोई दर्द उन पर बेअसर है
क्यों उनको ख़ुद की भी नही ख़बर है
न उनको उस खुदा का डर है
किसे जेहाद कहकर वो चल रहे है?
लहू में भीगी है सुबह की लाली
है जिंदगी की हर शाम काली
हर लम्हा ख़ुद में है सवाली
क्यों वक्त के रंग वो बदल रहे है ?
सूना सा है क्यों वो मन का कोना
जहाँ खेलता था बचपन सलोना
क्यों बन कर ख़ुद में एक खिलौना
मौत से खेलने को मचल रहे है....

Saturday, January 10, 2009

ज़ज्बा..!!


तेरी खामोशी को
आवाज देने की खातिर
मैंने कुछ लफ्ज़ चुने है
जिंदगी की किताब से !!
तेरी कर गुजरने की हद को
समझने के लिए
कुछ लम्हे चुराए है तुम्हारे ख्वाब से !!
मैं बुझाना चाहता हू
तुम्हारे सवालों की प्यास
अपने तलाश किए हुए कुछ जवाब से !!
कब तक जियोगे जिंदगी को
वक्त की शर्तों पर
अच्छा हो,गर वक्त चले तुम्हारे हिसाब से !!
ये जिंदगी हो ख़ुद तुम्हारी मुरीद
लेकर चलो ऐसी ही उम्मीद अपने आप से....!!

Friday, January 9, 2009

हार


वक्त के दिए घाव है
वक्त के साथ भर जायेंगें ......
हम तो इस सोच में है
ये गम लेकर किधर जायेंगें ?
हर शख्स हमको देखता है जिस तरह से
हम तो उस नज़र से भी शायद डर जायेंगें........
ये दर्द अब बेअसर है कहाँ ?
हम तो इसकी एक 'आह' से भी मर जायेंगें ......
ये ज़ख्म रह जायेंगें हरे ,जिंदगी भर के लिए
और हम दर्द के टुकडों में बिखर जायेंगें ......
हम किस भूल में चले थे,ये सपने लेकर
कि शायद ख़्वाबों के रंग निखर जायेंगें .......
एक रोज शायद यही लगा था मुझे
रात की गिरफ्त से उजाले निकल जायेगें ......
पर आज हारा हूँ मैं,अपनी ही सोच से
न पता था की हम इतने बदल जायेंगें ......
चले थे लेकर अरमान खुशी के
क्या ख़बर थी इनमें आंसूं पल जायेगें......

दूरी


कितना अच्छा लगता है कभी
ख़ुद से दूर होना .............
ख़ुद में न रहकर
कहीं और खोना .........
भूल जाना ख़ुद को
न पाना ख़ुद को
और ढूढना किसी और के
मन का कोना ............
अपनी सोच से परे
हो सब खाली सा
न कुछ भरे
न रोज की जिंदगी को ढोना ...........
जहाँ आंसू भी हो बेअसर
ख़ुद की न हो कोई ख़बर
न मरने का खौफ हो
न जीने का डर
जहाँ मिल जाए ख्वाहिशों को
चैन से सोना......
जहाँ हो ख़ुद को
तन्हाई भी न मयस्सर
न कोई ठिकाना
मैं रहूँ बेघर
जहाँ वक्त का
न चले कोई पता
न पड़ता हो ख़ुद को
ख़ुद में डुबोना .......

Wednesday, January 7, 2009

मुश्किल!!


क्यों लग रहा है ऐसा,जिंदगी मुश्किल सी है
करीब आकर भी जैसे दूर अभी मंजिल सी है
सोच में अपनी इस कदर उलझा हु मैं
एक एक उम्मीद महसूस होती बोझिल सी है ..
कब तलक और कहाँ तक ये सिमटे दायरे
जहाँ तन्हाई बस मेरी कातिल सी है ...
बन गया हु एक जिन्दा लाश अब तो मैं
जिंदगी की जगह मौत जैसे हासिल सी है ..
ख्वाब मेरे रो रहे है मेरी नाकामी पर
मेरी ख्वाहिशें इतनी क्यों बुस्दिल सी है ...
पढ़ नही पा रह हु अपनी लिखी इबारतें
लफ्जों में भी जैसे कोई साजिश शामिल सी है ..
मैं खेलने लगा आख़िर यूं ख़ुद से क्यों
गुनाह करने की हसरत जैसे जिन्दा दिल सी है .

Monday, January 5, 2009

दिल!


इस जहाँ में है न जाने कितने
चोट खाए दिल !!
बड़ी मुद्दत हुई कि किसी बात पर
मुस्कुराये दिल !!
ये दर्द तेरा है और वो दर्द मेरा है
बोलो किस तरह से ये फर्क लाये दिल !!
आइना कह गया
आंखों से सब बह गया
जो बाकी रह गया
उसमें क्या पाए दिल !!
बुनते-बुनते,चुनते-चुनते
थक गया है दिल
और तेरे लिए, जिंदगी को
कैसे बहलाए दिल !!
आज आ बैठा करीब मेरे
तेरा कोई गमजदा सा पल
मैं सोचता हू किस तरह उसे
हंसाये दिल !!
तू अपने हर एहसास से
अब रु-ब-रु हो जा
हो सकता है तुझे तन्हाई से ज्यादा
भाए दिल !!
तू भूला ख़ुद को
न जाने किस भूल में
पर तेरी इस तड़प को
न भूलाए दिल !!
बिखरी सी खामोशी में
लिपटे हुए कुछ लफ्ज़
न जाने कब दस्तक देकर
छू जाए दिल !!
तू अनजान इस दिल से
कहाँ,क्या ढूंढता है
तुझे तेरे दिल से,ज्यादा न जगह देंगें
पराये दिल !!