Friday, February 27, 2009

एक कहानी..


मैंने दर्द की एक कहानी लिखी है
जहाँ जिंदगी पानी पानी लिखी है ॥
आँसुओं से तरी
समन्दर से खरी
लफ्ज़ गमगीन है
पर नमकीन है
वहां सपनो की मिठास फीकी सी दिखी है
हाँ मैंने वहीं ये कहानी लिखी है ॥
न है कोई परी
न है जादूगरी
सिसकती है उम्मीद
जहाँ डरी डरी
वहां खामोशी भी आह में भीगी है
हाँ मैंने वहीं ये कहानी लिखी है ॥
गीली गीली सी है रुत
है जहाँ दिल एक बुत
हर लम्हा तडपता सा
ख़ुद में है धुत
जहाँ तन्हाई ख़ुद को देख चीखी है
हाँ मैंने वहीं ये कहानी लिखी है॥
पिघले एहसास है
बुझती सी आस है
कतरे कतरे से
सुलग रही प्यास है
रंग मिटटी के है,न आसमानी सरीखी है
हाँ मैंने ऐसी ही कहानी लिखी है

Wednesday, February 25, 2009

तिशनगी.


क्यों इस तरह से
जिंदगी से खफा से
हम ख़ुद में ही सिमट रहे है॥
होते जा रहे है यूं दूर सबसे
कि जैसे फासलों में कट रहे है ॥
बना रहे है आंखों को समन्दर
डूबे हुए है सब ख्वाब जिस के अन्दर
कतरा कतरा बहे जा रहे है
गम से इस तरह लिपट रहे है॥
फैली स्याह में खो गए उजाले
कोई तो आकर ये उम्मीद संभाले
रह रहकर यूं लग रहा है
पल पल में जैसे हम मिट रहे है॥
कहीं तो मांगें ये मन दिलासा
और कहीं बस रह जाए प्यासा
ये तिशनगी हम बुझाये कैसे
ये सोच अश्कों में बँट रहे है॥
हरेक लम्हा जैसे है सवाली
और हर जवाब है जैसे खाली
क्या हो गया है आख़िर ये कि
खामोशी के कदम भी पीछे हट रहे है॥
मैं ही न ख़ुद को समझूं तो कौन जाने?
कि खो के ख़ुद को,यूं लगे किसको पाने?
जो देखा खोल आज जिंदगी को
तो पाया कुछ पन्ने फट रहे है॥
है धुंधली दिल की तस्वीर कोई
सुलग रही है फिर पीर कोई
उजाले फीके से पड़ गए तो
हम रातों को उलट रहे है॥

Monday, February 16, 2009

उलझन..


नही जानता मैं जिंदगी के किस अकेलेपन में था
या कि ये अकेलापन बस मेरे ही मन में था ॥
खींचा चला जा रहा था मैं अपनी प्यास से
जुड़ नही पा रहा था अपने मन की किसी भी आस से
थक गया था मैं शायद अपनी ही तलाश से
ख़ुद के होने का एहसास बस दर्पण में था ॥
दर्द उठ रहा था आत्मा की चोट से
देख रहा था ज़ख्म को जब मन की ओट से
खामोशी चिपकती जा रही थी इस तरह से होंठ से
हर बेजुबां सा लफ्ज़ बस अपनी धुन में था ॥
डूबता जा रहा था अपने ही किसी ख्वाब में
और चुन रहा था आंसूं ही जवाब में
छुपा भी रहा था आँखें किसी नकाब में
भीगता जा रहा मैं किसी सावन में था ॥
पर जब मिला न मुझे कुछ भी तेरी ओर से
छुडा कर चला ख़ुद को मैं जिंदगी की डोर से
और जब मिला मैं एक नई भोर से
पाया मैं अब तक बस रातों की उलझन में था ॥

Friday, February 13, 2009

वैलेंटाइन पर ...


एक नज़र तो उठा के देख,मैं तेरी परछाई हू
शाम के ढलते ढलते तुझ में सिमट आई हू ॥
न छुपा पाओगे मुझसे तुम कोई भी बात
सुबह की सुनहरी धूप में होगा फिर से अपना साथ
दिन ढल जाए चाहे हो भी जाए रात
मैं हमेशा से ही तेरी तन्हाई हू ॥
न ये समझ, मैंने पाया है तुझे खो जाने को
न फासला समझती हू तेरे सो जाने को
ख्वाब जैसे ही जाग जाते है तुम में
जान ले मैं ही उन्ही ख़्वाबों में समायी हू ॥
तू,मुझे कुछ तो अलग समझ इस जहाँ से
कोई अनजाना सा पल दिल लाये ही क्यूँ कहाँ से
जो प्यार तू अपने अन्दर लिए फिरता है
सच तो ये है मैं उसी प्यार की गहराई हू ॥

कब तक ?


आख़िर कब तक दिल को सपनों से भरते रहेंगें
और सच को देखने से डरते रहेंगें ॥
मिटाते रहेंगे कब तक अपने वजूद को
और मुखोटे आईने में सवंरते रहेंगें ॥
जिन्दा रखेंगें झूठ को किसी भी कीमत पर
और चाहे ख़ुद इसके बोझ तले मरते रहेंगें ॥
भटकते रह जायेगें तब भी न ख़ुद को पायेंगें
वक्त की गुमनाम गलियों में पलते रहेंगें ॥
रास्ते खत्म हो जायेंगें शायद
पर फिर भी तन्हा से चलते रहेंगें॥
इस दिल के पत्थर हो जाने तक
दर्द की लौ में यूं ही पिघलते रहेंगें॥
तलाशते रह जायेंगें उजालों को रातों में
और सुबह की किरण को देख आँख मलते रहेंगें ॥
क्या नाम देंगें आख़िर इस जिंदगी को
कब तक आख़िर ख़ुद को छलते रहेंगें॥

Thursday, February 12, 2009

शायद...


मैं तेरी सोच में था,जब दर्द की बात चली
मुद्दतों बाद थी मेरी जिंदगी मेरे साथ चली
मैं चाहकर भी तेरा होंसला न बन पाया
जहाँ कल तक था मैं,उस मन में खालीपन पाया
देर तक मैं रहा खड़ा और फिर मायूस सा चल पड़ा
ख़ुद की अपनी तन्हाई से फिर लम्बी मुलाकात चली ॥
न ख़ुद की थी ख़बर और न था तेरा पता
मैं कर चला था अनजाने में जिंदगी से भी खता
आँखें बंद करके जब पूछा अपने दिल से कि तू ही बता
तो जैसे मुझे लेकर अधूरे ख़्वाबों की एक लम्बी रात चली ॥
तेरी आंखों से बहा एक आंसूं भी न मिला
फिर कर रहा है कौन मेरा मन गीला
रह गई है जिंदगी जैसे एक आह बनकर ॥
भर गया है सहराँ,शायद देर तक है बरसात चली ॥

Wednesday, February 11, 2009

लम्हा भर


एक लम्हे में उजड़ गया था
सपनों का चमन
एक लम्हे में ही खाली था
मन का गगन
जिसको लगी थी एक उम्र पाने में
एक लम्हा भी न लगा उसको खो जाने में॥
ये गीला सा मौसम था
या कि बस मेरा गम था
उसके खोने का एहसास
ख़ुद को पाने से कम था
वो जिसको देखती थी मैं
हरेक शख्स में
वो कैसे गुम हो गया किसी अनजाने में ॥
वो संग था मेरे, तो जैसे न थी कोई कमी
जिंदगी ख़ुद में एक लम्हा सी थी
या कि हर लम्हे में जिंदगी
आज लगता है ख़ुद को देख ये
कि मैं ही मैं अब नही
और लम्हा बन रहा है एक सदी
जिंदगी को भूलाने में॥

Tuesday, February 10, 2009

जिंदगी और मैं


मैं किसी सोच में उलझी थी
या किसी भंवर में थी
दूर बहुत दूर तक, तन्हा सी
अपनी नज़र में थी ॥
होकर रह जाती थी चुप
अपनी ही कही किसी बात पर
लफ्जों से ज्यादा यकीं था मुझको
खामोशी के साथ पर
ये नजदीकियां थी ख़ुद से
या कि दूसरो से थे फासले
या जिंदगी से दूर हो जाने के
मैं डर में थी ॥
ये मेरे मन में कौन था
जो इतना मौन था
जिसकी हस्ती के आगे
मेरा वजूद गौण था
ये इंतज़ार था जैसे
कि वो आकर मुझसे मिले
या कि मैं ख़ुद के खो जाने के
असर में थी ॥
कर नही पाई शिकवा कभी
ख़ुद किसी से
और मांगती रही जिसका हिसाब
अपनी ही जिंदगी से
कौन किस से था परेशान
जानकर होती हू अब हैरान
मैं जिंदगी की और जिंदगी मेरी
ख़बर में थी ॥

Monday, February 9, 2009

पहेली!


कभी करते थे ख़ुद से गिला
और कभी जिंदगी से शिकवा करते थे
न जाने कैसे हम जिंदगी से अलग
बस ख़ुद को ही जीया करते थे ..
रहते थे अपने आप में
फासलों की नाप में
और बस कब तक ऐसे ही
बहुत सोचा करते थे ..
जो होठों पे आने से डरती थी
जो दबी दबी सी आह भरती थी
उस खुशी से भी हम
झगड़ लिया करते थे ..
हम दर्द का रंग जानते थे
और ख़ुद को भी पहचानते थे
पर न जाने क्यों खालीपन को
कोरा ही समझा करते थे ..
हाँ!बात लगी बड़ी अजीब थी
जीने की भी कोई तरकीब थी
जिसको पहेली समझ हम
छोड़ दिया करते थे..
जाने क्या क्या चुनते थे
हम यूं ही तो नही ख्वाब बुनते थे
कभी छुपकर मन की ओट से
हम इन्हे छू भी लिया करते थे..
फिर ऐसे क्यूँ प्यास बढ़ी
कुछ बूंदों की आस बढ़ी
जाने वो कैसा मौसम था
जब हम भीगा करते थे॥
तब तक तो रंग सलोने थे
कैसे हुए हम मन से बोने थे
बचपन की दहलीज़ तक तो
न जाने क्या क्या बूझा करते थे..

Saturday, February 7, 2009

क्यूँ?


मेरी मुश्किल यही है
मेरे लिए सब आसां क्यूँ है?
और जो मुश्किल है
आख़िर वो सब उसका क्यूँ है?
हाथ उठते है क्यूँ उसकी दुआ के लिए
मैं कैसे छोड़ आई उसको खुदा के लिए
एक इंसान भी होना इतना मुश्किल क्यूँ?
और वो मेरे लिए आख़िर ख़ुद खुदा क्यूँ है?
मैं ख़ुद के लिए भी नही,तो फिर किसके लिए?
मैंने इतने वादे फिर क्यों उससे है किए ?
मेरा वजूद जब ख़ुद में एक सवाल है
तो सुकूं,मेरे लिए उसका होना क्यूँ है?
ये सोच है या कि है बस उलझन भर
ऐ जिंदगी तू ऐसे सवालों से ही मन भर
और इंतज़ार कर कुछ खोकर पाने का
तू आखिर इस कदर मुझसे खफा क्यूँ है?