Monday, February 16, 2009

उलझन..


नही जानता मैं जिंदगी के किस अकेलेपन में था
या कि ये अकेलापन बस मेरे ही मन में था ॥
खींचा चला जा रहा था मैं अपनी प्यास से
जुड़ नही पा रहा था अपने मन की किसी भी आस से
थक गया था मैं शायद अपनी ही तलाश से
ख़ुद के होने का एहसास बस दर्पण में था ॥
दर्द उठ रहा था आत्मा की चोट से
देख रहा था ज़ख्म को जब मन की ओट से
खामोशी चिपकती जा रही थी इस तरह से होंठ से
हर बेजुबां सा लफ्ज़ बस अपनी धुन में था ॥
डूबता जा रहा था अपने ही किसी ख्वाब में
और चुन रहा था आंसूं ही जवाब में
छुपा भी रहा था आँखें किसी नकाब में
भीगता जा रहा मैं किसी सावन में था ॥
पर जब मिला न मुझे कुछ भी तेरी ओर से
छुडा कर चला ख़ुद को मैं जिंदगी की डोर से
और जब मिला मैं एक नई भोर से
पाया मैं अब तक बस रातों की उलझन में था ॥

9 comments:

Rahul kundra said...

लगता है कोई मुझे मेरी ही कहानी सुना रहा है। बहुत खूब। खुदा आपको कामयाब करे।

Udan Tashtari said...

भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

mehek said...

छुपा भी रहा था आँखें किसी नकाब में
भीगता जा रहा मैं किसी सावन में था ॥
waah bahut khubsurat nazm

vijaymaudgill said...

दर्द उठ रहा था आत्मा की चोट से
देख रहा था ज़ख्म को जब मन की ओट से
खामोशी चिपकती जा रही थी इस तरह से होंठ से
हर बेजुबां सा लफ्ज़ बस अपनी धुन में था ॥

क्या बात है पारुल बहुत ख़ूब लिखा आपने।
ख़ामोशी चिपकती जा रही थी इस तरह होंठ से

Anonymous said...

अंतर्मन से निकले कुछ शब्‍द एक खूबसूरत नज्‍म बन गए हैं।

बवाल said...

पारुल जी, ये वास्तव में ख़ूबसूरत बात कह गए हो आप। वाक़ई। ख़ुदा नज़रे-बद से बचाए। ऊँची बात है आपकी रचना में।

बवाल said...

पारुल जी, ये वास्तव में ख़ूबसूरत बात कह गए हो आप। वाक़ई। ख़ुदा नज़रे-बद से बचाए। ऊँची बात है आपकी रचना में।

Unknown said...

bahut sundar likha hai aapne...

पूनम श्रीवास्तव said...

Parul,
bahut sargarbhit evam bhavpoorn kavita .badhai.
Poonam