Saturday, March 27, 2010

भूख!





जिंदगी! बस इतना बता दे मुझको
तू उम्मीद की जगह क्यों मुझे में भूख बोती है
मैं चाहकर भी सुकून से सो नहीं पाता
रात का चाँद भी मुझको लगता 'रोटी' है ॥
झांकता हूँ जब भी खुद में
चूल्हे सा जलता हूँ
रोज इस भूख की खातिर
अपने आंसूओं पे पलता हूँ
रोज तू मुझे में फिर ऐसे ही भूखी सोती है ॥
रोज ही बनता हूँ मैं मिटटी पर गोले
कि शायद धूप में सिककर ये रोटी हो ले
और मैं बैठकर इसको फिर जी भर खाऊँ
रोज ये आस क्यों आखिर मुझको होती है ॥
या तो मिल जाये कहीं से मुझको दो दाने
या बता दे मुझको उन ख़्वाबों के ठिकाने
एक लम्बी नींद लग जाये वहां शायद मुझको
न पूछ पाऊँ फिर तुझसे क्यों मुझे ढोती है ॥







Monday, March 22, 2010

दर्द!!



जिंदगी को जिंदगी होने का दर्द है
खुद को खुद में ही खोने का दर्द है॥
एक आस पर जीती है
और रोज उस में ही बीती है
एक उम्मीद में खुद को बोने का दर्द है॥
वो जो खाली सा रहता है
हरदम सवाली सा रहता है
मन के उसी खाली कोने का दर्द है॥
ख्वाब रोज ही छिलते है
अक्सर गीले ही मिलते है
अपने ही आंसूओं के रोने का दर्द है॥
वो जो बचपन में होता था
मिल जाता था,जब भी रोता था
याद आते उस जादू-टोने का दर्द है॥
कैसे मन को चुभता था
जब कलम से
खुदता था
उन्ही ख्वाहिशों को लफ़्ज़ों में
ढ़ोने का दर्द है॥

Sunday, March 14, 2010

ख़त!



कल देर तक ख़ामोशी से जदोजेहद में था
आखिर जिंदगी का एक ख़त हाथ लग गया था।
और ख़ामोशी भी आ गयी थी कशमकश में
कि क्यों में लफ़्ज़ों के साथ लग गया था॥
कुछ लफ्ज़ अधमरे थे
कुछ सोच से परे थे
पर इतना तो तय था
वो मुझसे भरे थे
मेरे इस रवैये पे ख़ामोशी उलझन में थी
कि क्यों मैं लफ़्ज़ों में बिन बात लग गया था॥
ख़त लिखने में लगी
रातों की स्याह थी
और हर लफ्ज़ में
जैसे चुप सुबह थी
इस सबसे दूर,ख़ामोशी अपनी ही अनबन में थी
और मैं खुद को समझने में दिन रात लग गया था॥
ख़त के हर लफ्ज़ में
जिंदगी की आह थी
और इस दर्द में
सोच अब गुमराह थी
मैं जिंदगी से अब सब कुछ कह देना चाहता था
ख़ामोशी से सुलह में हर ज़ज्बात लग गया था॥

Wednesday, March 10, 2010

कहानी..


कुछ पन्ने भी फटे थे
कुछ लफ्ज़ भी कटे थे
तेरी मेरी उस कहानी से
किरदार भी छंटे थे ।
एक टुकड़ा मेरे दिल का
अब चाँद बन गया था
एक टुकड़ा तेरे दिल का
ख़्वाबों में सन गया था
एक नींद लग गयी थी
दोनों को एक जैसी
जहाँ दोनों टुकड़े
आपस में पास आ सटे थे ।
जबरन कराये खाली
दोनों ने मन के कोने
एहसास कहानी के
थककर लगे थे सोने
एक प्यास लग गयी थी
दोनों को एक जैसी
जीकर वो दर्द ,रोने को
अब कतरे भी बांटे थे ॥

Saturday, March 6, 2010

कशमकश!





ख़ामोशी तेरी मेरी एक दूजे में उलझी थी
यूँ ही नहीं था बातों का उधड जाना
लिपटे जा रहे थे धागे दोनों के मन पर
जायज था सोच के बोझ का बढ़ जाना ॥
लफ़्ज़ों की आपस में ऐसी अनबन थी
सोच को होने लगी उलझन थी
ऐसे में आखिर मन ही क्या करता
आसां था ख़ामोशी की परत का मन पर चढ़ जाना ॥
खोजा तो पाया मन की कोई गिरह नहीं थी
जिंदगी से भी अब कोई भी जिरह नहीं थी
बस लफ्ज़ अपना ठिकाना बदल रहे थे
जायज था मन से सोच का बिछड़ जाना ॥
खुद में ही बहुत खाली होने लगा था
ख़ामोशी पर सवाली होने लगा था
तेरी मेरी इस चुप सी मुलाकात का
जायज था ख्यालों की कशमकश में पढ़ जाना ॥

Monday, March 1, 2010

नासमझी



जब दूर बहुत दूर
तुम अपने ही ख़्वाबों में मशगूल थे
मेरे ख्वाब तुम्हारे न होने को दे रहे तूल थे ॥
उलझ रहे थे बेवजह ही मेरी अपनी तन्हाई से
खुश नहीं थे वो शायद तुम्हारी रिहाई से
और मैं एकटक देख रही थी यादों का धुंधलापन
तुम्हारे साथ बिताये लम्हे,खा रहे समय की धूल थे ॥
जो याद कभी तुम आते थे,वो आँखों में चुभते थे
मन आवाज लगाता जाता था,पर वो चाहकर भी कहाँ रुकते थे
वो कल के पानी के मोती जैसे बन गए अब शूल थे ॥
खाली कर देना चाहती थी खुद को
खुद में खुद को भी रखा न जाता था
बेस्वाद हो गया था सब कुछ
मन से अब कुछ भी चखा न जाता था
शायद इसलिए अब तक न समझ सकी
तुम कडवी याद थे या कोई मीठी भूल थे ॥